हिंदी सिनेमा:-इतिहास,संगीत और संवाद

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आज के भारतीय समाज की कल्पना बिना भारतीय हिंदी सिनेमा के करना संभव ही नहीं है।आज हिंदी सिनेमा भारतीय समाज के हर वर्ग में इस प्रकार घुल मिल गया है कि लोग सिनेमा के संवादों को अपने रोजमर्रा के कार्यो में भी प्रयोग कर लेते है।
शोले में ए.के.हंगल द्वारा बोला गया संवाद"इतना सन्नाटा क्यों है भाई"इसका एक अच्छा उदाहरण  हैै।
अर्थात हम ये मान सकते है कि हिंदी सिनेमा का प्रभाव समाज के प्रत्येक वर्ग तथा उनके दैनिक जीवन पर भी है।
आज भारत का सिनेमा उद्योग विश्व में सर्वाधिक फिल्मो का निर्माता है।भारतीये हिंदी सिनेमा ने ना केवल भारत अपितु विश्व के अन्य देशों में भी अपने पांव भली प्रकार से जमा लिए है।दंगल,बजरंगी भाईजान,DDLJ  आदि ऐसी फिल्में है 
जिन्होंने भारतीय संस्कृति तथा हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार पूरे विश्व में किया है।
किंतु इन फिल्मों की प्रसिद्धि में सर्वाधिक योगदान उन भारतीये प्रवासियों का है जो अन्य देशों में रह रहे है।उन्होंने हिंदी भाषा तथा सांस्कृति का प्रचार-प्रसार इन हिंदी फिल्मों के माध्यम से बखूबी किया है।


भारतीये सिनेमा का इतिहास:-

विश्व मे फिल्मो के आविष्कार का श्रेय थॉमस अलवा एडिसन को जाता है।फिल्मो का ये दौर 1883 में मिनेटिस्कोप की खोज के साथ शुरू हुआ।
1894 में फ्रांस में पहली फ़िल्म द अराइवल ऑफ ट्रेन बनी।इसके तकनीक का विकास हुुुआ और यूरोप और अमेरिका में अच्छी-अच्छी फिल्में बनने लगी।
7 जुलाई 1876 का दिन भारतीये सिनेमा के इतिहास का अमर दिन माना जाता है।इसलिए क्योंकि इसी दिन फ्रांस से दो भाई जिन्हें हम लुमियर्स ब्रदर्स नाम से भी जानते हैं भारत आए और उन्होंने अपनी 6 लघुचित्रों का प्रदर्शन बंबई के वाटकिन्स थिएटर में किया।इसी दिन भारत सिनेमा से परिचित हुआ।उस वक्त हमारी संवेदनाए इस कदर सिनेमा से जुड़ी की आज तक कम नहीं हुई।
भारत की पहली फ़िल्म थी राजा हरिश्चंद्र जो 1913 में बनी ।इस फ़िल्म को दादा साहब फाल्के ने बनाया था।
यह पहली फीचर फिल्म थी।
अगले दो दशकों में भी कई मूक फिल्में बनाई गयीं जिनके कथानक धर्म,इतिहास और लोक गाथाओ पर आधारित थे।
अब मूक के बाद बोलती फिल्मों का दौर आया यानी ऐसी फिल्में जिनमे आवाज़ हो।विश्व की पहली बोलती फ़िल्म द जॉर्ज सिंगर थी जिसे 1929 में अमेरिका में बनाया गया था।
भारत में बनी पहली बोलती फ़िल्म थी आलम आरा इसे 1931 में आर्देशिर माखान ईरानी ने बनाया था।आलम आरा को 14 मार्च 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा हॉल में प्रदर्शित किया गया।
इस फ़िल्म में मास्टर विठ्ठल,पृथ्वीराज कपूर,सुलोचना,जुबेदा,याकूब और महबूब खान आदि ने काम किया था।
आलम आरा के प्रदर्शित होने से पहले लोगो मे इस फ़िल्म के लिए जिज्ञासा उत्पन्न की गई।शहर की सड़कों,गली-कूंचों में घोड़ा गाड़ी पर भोम्पू लगाकर ज़ोर ज़ोर से आवाज़ लगाई गई,मुर्दा ज़िंदा हो गया,नया अजूबा देखो चार आने में....,बोलती चलती और नाचती तस्वीरे देखो चार आने में...,ग़ज़ल,शेर और गीत संगीत का मज़ा लो चार आने में...।
आलम आरा फ़िल्म में संगीत के लिए सिर्फ तीन साज़ का इस्तेमाल किया गया था-हारमोनियम, तबला और वायलिन।फ़िल्म का संगीत अजीब था जिसका कारण है कि पर्दे पर गाने वाले कलाकार अच्छे गायक नहीं थे।वैसे तो फ़िल्म में कई गाने थे पर उदहारण के लिए सबसे अच्छा और सटीक है "तेरी कटीली निगाहों ने मारा,निगाहों ने मारा ज़फओ ने मारा,भवें कमानी,नैना रसीले,इन दोनों झूठे गवाहों ने मारा...।
बोलती फिल्मों के बाद अब समय आया रंगीन फिल्मो का तो भारत की पहली रंगीन फ़िल्म किसान कन्या(1933) को माना जाता है।
इस फ़िल्म को हॉलीवुड के प्रोसेसर सिने कलर के तहत और इम्पीरिअल फ़िल्म कंपनी के विशेषज्ञ वोल्फ हिनियास की देख रेख में शूट किया गया था और इस प्रकार ये भारत की पहली रंगीन फ़िल्म थी।
इसके बाद एका-एक फिल्मो का निर्माण होंने लगा जिसमे शामिल है 1933 में आई मोहब्बत के आंसू,सुबह का सितारा,ज़िंदा लाश, पुराण-भगत,यहूदी की लड़की,रूपलेखा,माया,अछूत कन्या,दुनिया-न-माने,अधिकार,विद्यापति आदि।

आज़ादी के बाद के दो दशकों को तो फ़िल्म जगत का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है।इस दौरान ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जो आज तक लोगो के जेहन पर अपनी छाप छोड़े हुए है।गुरुदत्त की "प्यास","कागज़ के फूल" राजकपूर की "आवारा","श्री 420", देवानंद की "गाइड"। इन फिल्मो के साथ साथ गुरुदत्त और वहीदा रहमान,राजकपूर-नरगिस,दिलीप कुमार-मधुबाला और देवानंद और सुरैया की जोड़ी ने भी फ़िल्म जगत में धूम मचा दी।

सिनेमा और साहित्य:-

हिंदी सिनेमा को बेशक समाज का दर्पण कहा जाता हो किंतु हिंदी सिनेमा में हिंदी साहित्य का प्रभाव भी कम नहीं है।हिंदी सिनेमा में अनेक ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ है जो याद गार बनी है।हिंदी साहित्य के निर्माता मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान (1963) पर एक बहुत अच्छी फिल्म बनी जिसमें राजकुमार और शशिकला नेे प्रमुख किरदार निभाए।1966 में आई गबन भी उन्ही के उपन्यास पर आधारित थी।1934 में आई मिल मजदूर तो इसका और भी अच्छा उदाहरण है।इस फ़िल्म को लेकर लोकप्रियता और जिज्ञासा इतनी थी कि उस वक्त की अंग्रेजी सरकार ने इसे पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। 
इन्हीं कहानियों के चलते हिंदी,हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्य लोगो के बीच अपनी जगह बनाता चला गया।
सिनेमा में बांग्ला साहित्य भी पीछे नहीं है।बांग्ला साहित्य देवदास पर भी कई फिल्में बन चुकी है।
इन सबके अतिरिक्त भी कई साहित्यों पर फिल्में बन चुकी है।जैसे फडीनश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मारे गए गुलफाम परअधारित तीसरी कसम।बदनाम बस्ती,सूरज का सातवां घोड़ा,रजनीगंधा और तमस भी सिनेमा में साहित्य का अच्छा उदाहरण है।

Note:-सिनेमा और साहित्य आज एक अच्छे तालमेल के साथ चल रहे है।आज कुछ लोगो का यह कहना है कि सिनेमा में साहित्य हो सकता है पर साहित्य में सिनेमा नहीं हो सकता।

■ हिंदी सिनेमा और संगीत:-

ये क्या कर डाला तूने,दिल तेरा हो गया,हँसी-हँसी में ज़ालिम,दिल मेरा खो गया...ये क्या कर डाला तू..ने..।

मज़ा आया,   अगर नहीं तो एक और उदाहरण लेते है

याद किया दिल ने,कहाँ हो तो,
झूमती बाहर है,कहाँ हो तुम,
प्यार से पुकार लो,जहां हो तुम,
प्यार से पुकार लो जहां हो तुम।

अगर अब भी मज़ा नहीं आया तो एक और उदहारण ले ही लेते है

लिखे जो ख़त तुझे,
वो तेरी याद में,
हज़ारो रंग के,नज़ारे बन गए।
सवेरा जब हुआ,तो फूल बन गए,
जो रात आई तो,सितारे बन गए,
लिखे जो ख़त तू..झे..।

इन तीनो गानों का निर्माण किये हुए एक जमाना हो गया लेकिन आज भी जब हम इन गीतों को सुनते हैं तो झूम उठते है।
यहीं असर है हिंदी सिनेमा और हिंदी गीतों का हमारे जीवन पर।
हम न चाहते हुए भी आज अपने एक एक भाव को संगीत के माध्यम से महसूस करने लगे है।
खुशी है तो नेहा ककड़ के गाने सुन लेते है,ज़्यादा खुश है तो किशोर कुमार को सुने बगैर रह नहीं पाएंगे।
किसी कारण वश अगर दुःखी भी है तो जगजीत सिंग को सुनना हमेशा पसंद करते है।
आज भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशों में हिंदी गीत संगीत को खूब सुना भी जाता है और पसंद भी किया जाता है।आज कोई भी पार्टी बिना हिंदी गानो के पूरी नहीं होती।
राजकपूर की आवारा रशिया (रूस) में इतनी प्रसिद्ध हुई थी कि वहाँ सड़क पर चल रहा आदमी "मेरा जुता है जापानी,ये पतलून इंग्लिशतानी,सर पर लाल टोपी रूसी,फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी" गाए बगैर खुद को रोक नहीं पाता था।

एक और बात बताऊं, जापान में 1908 से हिंदी भाषा पढ़ाई जा रही है और वहां लोगो को हिंदी भाषा से परिचित कराने का माध्यम है हिंदी सिनेमा के गीत।
वहाँ रोजाना हिंदी फिल्मों के गीत प्रसारित किए जाते है।हिंदी गाने प्रसारित करने के लिए जापान में 7 FM चैनल  हैं।
हम खुद को हिंदी गानो से इस हद तक जोड़ चुके है कि अब खुद को इनसे अलग कर पाना मुश्किल है।

हिंदी सिनेमा और संवाद:-

हिंदी सिनेमा के संवादों की यदि बात चल रही है तो हम सिलसिले वार इनकी बात करे तो ज़्यादा अच्छा होगा।तो पहला संवाद है:
1."इतना सन्नाटा क्यों है भाई"वैसे तो ये डायलॉग शोले मूवी में ए.के.हंगल द्वारा बोला गया था लेकिन आज अगर चार लोगों के बीच में शान्त माहौल हो तो कोई ना कोई यह बोल ही देता है कि"इतना सन्नाटा क्यों है भाई"

2. दूसरा डायलॉग हम लेते है दीवार मूवी का।याद है जब दीवार मूवी अपने अंत की ओर बढ़ती है तब उसमें दो भाइयों के बीच की बहस दिखाई जाती है जिसमें आमिताभ बच्चन,अपने छोटे भाई शशि कपूर से कहते है 
"आज मेरे पास बंगला है,गाड़ी है,बैंक बैलेंस है,
तुम्हारे पास क्या है?
तब शशि कपूर सिर्फ चार शब्द कह कर उन पर भारी पड़ जाते है और वो चार शब्द है
"मेरे पास माँ है"।
70 के दशक में बच्चे बच्चे के मुंह पर यही शब्द थे जब भी उनसे कोई पूछता की तुम्हारे पास क्या है तो वो एक जवाब देकर की "मेरे पास माँ है" सामने वाले पर भारी पड़ जाते थे

3.तीसरा डायलॉग शोले मूवी का है।याद है जब गब्बर वीरू को कैद कर लेता है और बसंती को बोलता है कि "जब तक तेरे पैर चलेंगे,तब तक इसकी सांसे चलेगी" और इसी के कटाक्ष मेंं वीरू जब बसंती से कहता है की "बसंती इन कुत्तो के सामने मत नाचना"। यह दोनों डायलॉग इतने फेमस हुए की आज तक लोगों की ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं।

डायलॉग तो बहुत से हुए पर कुछ ही हैं जो आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं।जिनमे उपरोक्त प्रमुख है।

हिंदी सिनेमा और  हिंदी भाषा:-

आज हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओ में से एक है।हिंदी को वैश्विक स्तर पर पहुँचने में प्रवासी भारतीयों की अहम भूमिका है।ये भारतीये जहां भी बसे, वहां इन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति का विस्तार किया।इसी में एक महत्वपूर्ण भूमिका हिंदी सिनेमा ने निभाई है।आज सोवियत संघ(रूस),पोलैंड,हंगरी,बुल्गारिया,चेकोस्लोवाकिया आदि में हिंदी फ़ीचर फिल्मो को खूब पसंद किया जाता है।
इतना ही नहीं सोवियत संघ की जनता ने राजकपूर की आवारा से लेकर श्री 420,मेरा नाम जोकर समेत तमाम फीलमें देखी है  और पसंद भी किया है।
यही कारण है कि विश्व के लगभग 192 देशो में हिंदी भाषा न केवल पढ़ाई जा रही है बल्कि शान से बोली भी जा रही है।
हिंदी सिनेमा और हिंदी भाषा से जुड़ा एक दिलचस्प वाक्या याद आता है।
10वे विश्व हिंदी सम्मेलन(भोपाल ) अमिताभ बच्चन को आमंत्रित करने पर हिंदी समाज के कुछ विद्वानो को एतराज था। उनका कहना था कि अमिताभ बच्चन ने हिंदी की क्या सेवा कर ली जो उन्हें इतना अहम मंच दे दिया जाए?वैसे ये अलग बात है कि अमिताभ बच्चन खुद ही व्यक्तिगत कारण से इस सम्मेलन में शामिल नहीं हुए।
देखा जाए तो हिंदी की जिनती सेवा हरिवंश राय बच्चा ने अपने साहित्य से की है उससे कई अधिक हिंदी भाषा की सेवा व प्रचार- प्रसार अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मों के माध्यम से बखूबी की है।
हिंदी भाषा को मनोरंजन और फिल्मो की दुनिया ने व्यापार और लाभ की भाषा के रूप में जिस विस्मयकारी ढंग से स्थापित किया है,वह लाजवाब और काबिले तारीफ़ है।

हिंदी सिनेमा और कलाकार:-

राजकपूर,देवानन्द,राजकुमार, बलराज साहनी, पृथ्वीराज कपूर, मनोज कुमार, दिलीप कुमार, जितेंद्र,धर्मेंद्र किशोर कुमार गुरुदत्त,सुनील दत्त,अशोक कुमार, महमूद,राजेश खन्ना आदि।

महिला कलाकारों की बात की जाए तो- 
मधुबाला,मुमताज़,माला सिन्हा,रेखा,आशा पारेख,वहीदा रहमान, साधना,कुमकुम,शायर बानो, शर्मिला टैगोर, वैजंती माला आदि 

ऐसे कलाकार हैं जिन्हें भारतीये सिनेमा का सितारा कहा जाता है और ना ही जिन्हें कभी भुलाया जा सकता है।

पूरा ब्लॉग पढ़ने के लिए तहे दिल से शुक्रिया।

सुषमा तौमर।

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